अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत यहाँ, है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ ?
ईसा,मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता, कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता? -मैथिलिशरण गुप्त

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

बौधायन की पायथागोरस प्रमेय ! {Baudhayana's Pythagorean Theorem}

ग्रीक गणितज्ञ पायथागोरस (जन्म 570 ईसा पूर्व) की पायथागोरस प्रमेय को कोन  नहीं जनता |
जबकि यह कम लोग ही  जानते होंगे कि वास्तव में‌ इसके रचयिता पायथागोरस नहीं वरन हमारे वैदिक ऋषि बौधायन (जन्म 800 ईसा पूर्व.)  हैं, जिऩ्होंने यह रचना पायथागोरस  से लगभग 250 वर्ष पहले की थी। ऐसा भी‌ नहीं है कि पायथागोरस ने इसकी रचना स्वतंत्र रूप से की हो अपितु शुल्ब सूत्र के अध्यन से ही प्राप्त की थी।

इस प्रमेय का वर्णन शुल्ब सूत्र (अध्याय १, श्लोक १२) में मिलता है।
शुल्बसूत्र, स्रौत सूत्रों के भाग हैं ; स्रौतसूत्र, यह वेदों के उपांग (appendices) हैं। शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं।
शुल्ब सूत्र में यज्ञ करने के लिये जो भी साधन आदि चाहिये उनके निर्माण या गुणों का वर्णन है। यज्ञार्थ वेदियों के निर्माण का परिशुद्ध  होना अनिवार्य था। अत: उनका समुचित वर्णन शुल्ब सूत्रों में‌ दिया गया है।   भिन्न आकारों की वेदी‌ बनाते समय ऋषि लोग मानक सूत्रों (रस्सी) का  उपयोग करते थे । ऐसी प्रक्रिया में रेखागणित तथा बीजगणित का आविष्कार हुआ।
शुल्बसूत्र का एक खण्ड बौधायन शुल्ब सूत्र है। बौधायन शुल्ब सूत्र में ऋषि बौधायन ने गणित ज्यामिति
सम्बन्धी कई सूत्र दिए |



बौधायन का एक सूत्र इस प्रकार है:
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यंगमानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।
 (बो। सू० १-४८)

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं।
 अर्थात
किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है।
 यहीं तो पाइथेगोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथेगोरस के पहले से थी।

 जो प्रमेय पायथागोरस ने दी वो है :


The sum of the areas of the two squares on the legs (a and b)
equals the area of the square on the hypotenuse (c).
a^2 + b^2 = c^2



ज्यामितिक साहित्य मूलतः ऋग्वेद से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार अग्नि के तीन स्थान होते हैं- वृत्ताकार वेदी में गार्हपत्य, वर्गाकार में अंह्यान्या तथा अर्धवृत्ताकार में दक्षिणाग्नि। तीनों वेदियों में से प्रत्येक का क्षेत्रफल समान होता है। अतः वृत्त वर्ग एवं कर्णी वर्ग का ज्ञान भारत में ऋग्वेद काल में था। इन वेदियों के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न ज्यामितीय क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। जैसे किसी सरल रेखा पर वर्ग का निर्माण, वर्ग के कोणों एवं भुजाओं का स्पर्च्च करते हुए वृत्तों का निर्माण, वृत्त का दो गुणा करना। इस हेतु इनका मान ज्ञात होना जरूरी था।

इनके अतिरिक्त उऩ्होंने २ के वर्गमूल निकालने का सूत्र भी दिया है, जिससे उसका मान दशमलव के पाँच स्थान तक सही आता है तथा कई अन्य ज्यामितीय रचनाओं के क्षेत्रफल ज्ञात करने, ज्यामितीय आकारों के बारे तथा एक ज्यामितीय आकार को दूसरे समक्षेत्रीय आकार में परिवर्तित करना आदि |
उदाहरण के लिए एक आयत को एक समक्षेत्रीय वर्ग के रूप में अथवा उसके अंश या गुणित (Multiple) में प्राप्त करने का तरीका।


और भी बहुत कुछ:
http://hi.wikipedia.org/wiki/भारतीय_गणित

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